माता पर कालिख पोतता “धर्म” [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, भाग – 2, प्रविष्टि – 10]

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माता पर कालिख पोतता “धर्म”

“गाय के दूध का ही प्रतिफल है उसका चमड़ा और गौमाँस। दूध दुहने के लिए उठे हाथ, उसका गला घोंटने की प्राथमिक तैयारी है। दुग्ध-उत्पादों को खरीदने के लिए उपभोक्ता द्वारा दिया गया पैसा, परोक्ष रूप से गौमाता की हत्या के लिए दी गई एक सुपारी है।”

“माँ” शब्द में जितना सम्मान, जितना प्रेम व जितनी ममता समाई है, उतनी पूरे शब्दकोष के किसी अन्य शब्द में नहीं है। किसी भी प्राणी की जननी ही इस शब्द की एकछत्र अधिकारी है। हमारे देश के धर्म-ग्रंथों में गाय को “माता” का दर्ज़ा देना एक बड़ी भूल थी। गाय को “माता” कहना अपनी नैसर्गिक माता का घोर-अपमान है। विशेषकर आज के परिवेश में एक गाय के साथ किया जाने वाला हमारा व्यवहार उसके अपमान और उत्पीड़न की वे सारी हदें पार कर जाता है जिसको वर्णित करने के लिए सभी शब्द असमर्थ हो गए हैं।

एक गाय का जीवन उसकी माँ के साथ हुए दुष्कर्म एवं बलात्कार के साथ शुरू होता है। जन्म होते ही अपनी माँ से अलगाव, आजीवन कैद, बड़े होने पर गर्भाधान के लिए निरंतर बलात्कार की पीड़ा, संतान-विरह, उसके दूध का छीना जाना, कृत्रिम भोजन व हारमोंस के इंजेक्शन, बूचडखाने का सफ़र, कई दिनों तक भूख से तड़पना, अपने साथियों को अपने ही सामने निर्ममता से मारे जाते हुए देखना और अपनी बारी की प्रतीक्षा करना, जीवित-अवस्था में ही अपनी खाल का निकाला जाना आदि अनेक प्रकार के शोषण का शिकार होना एक औसत गाय के जीवनकाल में ‘साधारण’ घटनाएँ हैं।

बाज़ारीकरण के इस दौर में जिसकी जितनी भयंकर और क्रूरतम तरीके से शोषण एवं हत्या की जाती है, उसे समाज में स्वीकार्य और सामान्य दर्शाने के लिए उतने ही अधिक शालीन, सम्मानजनक एवं ह्रदय को प्रिय लगने वाले शब्दों के पीछे छुपाने का प्रयास किया जाता है। गाय को “माता” का दर्ज़ा देना मनुष्य की उसी चाल-बाज़ी और धूर्तता का एक घिनौना प्रयास है। गाय को “माता” कहकर उसके साथ हो रहे शोषण को “पूजनीय” कहना, उसके दूध की चोरी को उसका “प्रसाद” एवं उसकी “ममता की सौगात” कहना, उससे निष्कासित उत्पादों से होने वाली इच्छा-पूर्ति के वश में हो उसे “कामधेनु” और “कपिला” कहना समाज की नैतिकता को एक बहुत बड़े भ्रमजाल में फंसा, गलतफहमी पैदा करने की पुरातन साजिश है।

कहते हैं कि एक झूठ को हज़ार बार दोहराने पर वह सच लगने लगता है। परंतु गाय को तो सदियों से “माता” कहकर उसके बिना इंसान का जीवन असंभव होने का झूठ प्रसारित किया गया है। यही नहीं, इस झूठ को परिपक्व करने के लिए गाय को “कामधेनु” और “कपिला” कह उसे दिव्य स्वरूप प्रदान करने का भी प्रयास किया गया है। इस “दिव्यता” के इर्द-गिर्द आस्था और श्रद्धा का ऐसा ताना-बाना बुना गया कि उस पर कोई संदेह करने का दुस्साहस भी न कर सके। इसी का प्रभाव है कि आज अधिकतर लोग यह मानते हैं कि गाय के दूध, घी, मक्खन, पनीर आदि के बिना जीवन असंभव है, उसके गोबर और गौ-मूत्र के बिना अन्न-उत्पादन नहीं हो सकता, उसके चमड़े के जूतों के बिना हम निर्बाध पैदल चलने में भी अक्षम हैं आदि-आदि।

मन की गहराइयों में पैठी इन्हीं असंगत धारणाओं के कारण आज हमारा देश दुनिया में सबसे बड़ा दुग्ध-उत्पादक देश है। दूध पीने वाले “शाकाहारी” वर्ग इस तथ्य पर ज़रूर गौरवान्वित होते हैं परंतु गौ-माँस के रूप में होने वाली इसकी परिणति को सिरे से खारिज़ कर देते हैं। “आज भारत विश्व का सबसे बड़ा गौ-माँस निर्यातक हैं क्योंकि वह सबसे बड़ा दुग्ध-उत्पादक देश है।” इन तथ्यों को इस प्रकार उजागर करने पर शाकाहारी वर्ग को गर्व नहीं होता बल्कि ग्लानि होती है। अपनी शर्मिंदगी को छुपाने के लिए वे इन तथ्यों को ही नकार कर असंबंधित और बेबुनियाद बता देते हैं। लेकिन सत्य कितना ही कडुवा लगे, उसे छुपाने से उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होगा।

सच तो यह है कि केवल दूध के पैसे के बलबूते पर कोई भी डेयरी-फार्म या किसान अपनी गायों को आजीवन चारा नहीं खिला सकता। आजीवन चारा तो दूर की बात, वह बीच के शुष्क-काल (ड्राई-पीरियड) में जब गाय दूध नहीं देती है, तब भी सड़कों पर प्लास्टिक, कचरा आदि खाने के लिए उसे भेज देता है। राजस्थान की आधी से अधिक गाय-भैंसें बांझ या अनुत्पादक हैं। कुछ को गर्भाधान करने में अधिक समय लगता है। ऐसे ड्राई-पीरियड में इनको चारा आदि खिलाते रहने पर इनके स्वामियों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। हाल ही में उदयपुर के बड़गांव स्थित कृषि विज्ञान केंद्र और पशुपालन विभाग ने 15 वर्षों के अथक प्रयासों के बाद अनुत्पादक गाय-भैंसों के शीघ्र गर्भाधान करवाने के लिए हार्मोनल थैरेपी पर आधारित एक नई तकनीक ईजाद की है, जिसे ‘उदयपुर प्रोटोकोल’ का नाम दिया गया है। इस हेतु पिछले पंद्रह वर्षों में फील्ड-ट्रायल के नाम पर हजारों पशुओं पर प्रयोग कर उनका शोषण किया गया। अब उनके अंडाशय या डिम्बग्रंथियों की सरंचना को देखकर उस आधार पर इलाज की ‘प्रक्रिया’ अपनाई जाती है। इससे पहले उनके गुदे को मलद्वार से हाथ डालकर टटोला जाता है कि वे गर्भवती है अथवा नहीं। यदि नहीं तो 18 से 21 दिनों के अंतराल पर उनमें पुनः कृत्रिम वीर्यरोपण (बलात्कार) किया जाता है। इन सबके बावजूद भी इस तकनीक की अधिकतम सफलता 60% ही आंकी गई है। गाय-भैंसों को शीघ्रातिशीघ्र गर्भवती करने में हर व्यवसायी का हित जुड़ा हुआ है, नहीं तो ऐसी गायों की कोई पूछ नहीं है। इस तरह गाय को अधिक से अधिक ‘उत्पादक’ बनाने के लिए ‘विकास’ के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च कर उसके शोषण की नई-नई तकनीकें ईजाद की जा रही है।

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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें:

प्रविष्टि – 11: माँसाहार से भी घिनौना शाकाहार

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी



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